जब कभी भी ज़िन्दगी की खोल कर देखी किताब |
सफ़हे - सफ़हे का दिखा कर ज़ख़्म तब रोई किताब ||
देख कर नाकामियाँ एसी मेरी तालीम की |
फेंक दी बच्चे ने मेरे एकदम अपनी किताब ||
फेल होने पर मेरा बच्चा जो रोया जार-जार |
मैंने पूछा क्या मियाँ तुमने पढ़ी भी थी किताब ?
जिसमें रक्खे थे किसी के ख़त हिफ़ाज़त से सभी |
वक़्त की दीमक ने कब की चाट ली सारी किताब ||
देखता हूँ जब कभी उलझा किताबों में मिले |
काम की होती नहीं कोई मगर उसकी किताब ||
ज़िन्दगी शायद सँवर जाती मेरी भी कुछ न कुछ |
खोल कर जो देखता माँ-बाप की अच्छी किताब ||
आप जिसको ढूंढते फिरते हो यूँ ही दर - ब - दर |
ज़िन्दगी है अस्ल में वो आपकी असली किताब ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
BAHUT KHOOB SIR... MATLA KHOOB LAGA SIR
ReplyDeleteBAHUT KHOOB SIR... MATLA KHOOB LAGA SIR
ReplyDelete