Monday 6 June 2011

सीधी सादी ग़ज़लें (जारी)


है यहाँ पर भीड़ पर  महफ़िल  नहीं है |
ये जगह  तक़रीर के  क़ाबिल  नहीं है ||

राबता आपस  में  क्या    क़ायम रहेगा |
याँ के बाशिंदों में उतना दिल  नहीं है ||

नेकबख्तों  की   बनी  फ़ेहरिस्त है  जो |
नाम  उसमें क्यूँ मेरा शामिल  नहीं है ?

बेगु़नाहों     की     हज़ारों   हैं    दलीलें |
साफ़ नीयत का मगर आदिल नहीं है ||

लोग  दावेदारी  लेकर  आ    गए   सब |
एक भी इनमें  मगर कामिल  नहीं है ||

क़ायदा   क़ानून      सारा   जानता   है |
आज का इंसान  यूँ  गा़फ़िल  नहीं  है ||

बोझ ख़ुद का ख़ुद ही पड़ता है उठाना |
एक भी हामिल   हमें हासिल   नहीं है ||

                                                                डा० सुरेन्द्र सैनी 

चार  पैसे  दान  में बस  क्या   दिए हैं |
शहर  भर  में  पोस्टर  टंगवा  दिए हैं ||

अब के  होगी  जीत पक्की    ही हमारी |
बस्ती  में  दारु के ड्रम खुलवा  दिए हैं ||

ये  बशर  जो  सच  के पर्चे  बांटता था |
हाथ  इसके  आज  ही  कटवा  दिए हैं ||

जब भी पूछा क्या किया है  ज़िंदगी में ?
बस ज़रा  सा  हौले  से  मुस्का दिए हैं ||

आज आमद है किसी लीडर   की शायद |
रास्तों  पर  फूल  जो  बिछवा   दिए हैं ||

उम्र  भर  जो  बुतपरस्ती   से   लड़े  थे | 
हमने उनके बुत भी अब बनवा दिए हैं ||

छाँट कर शातिर से शातिर लोग हमने |
राजधानी  में   सभी  भिजवा  दिए  हैं ||

कल  वही   पेपर  में  टीचर पूछ लेगा |
प्रश्न   सारे  आज  जो  समझा दिए हैं ||

साब  जब  से  बन  गए   फूफा हमारे |
डॉग  भी   इम्पोर्टेड  मंगवा  दिए  हैं ||

                                                      डा० सुरेन्द्र सैनी 

वो  तुझसे  चाहता  है क्या ?
कभी  तू    सोचता  है  क्या ? 

हमीं    से     है    परायापन |
ये आख़िर माज़रा है  क्या ?

क़सम   खाई   न  पीने की |  
मगर दिल मानता  है क्या ?

हमारे  बीच  क़ातिल   को |
कोई  पहचानता  है  क्या ?

तुम्हारे बिन जहाँ में अब |
हमारा  आसरा    है   क्या ?

                                          डा० सुरेन्द्र सैनी 

वो  कीनावर  है   कीना चाहता है |
तभी  पत्थर  का सीना चाहता है ||

ख़ुदा ने  की  हैं  जब सांसे मुक़र्रर |
क्यूँ    लम्बी  उम्र  जीना  चाहता है ?

उसे   सेहत   इजाज़त  दे न दे पर |
शराबी    रोज़      पीना   चाहता  है ||

पिरोकर वक़्त की सुईयों में सांसे |
बशर ज़ख्मों को सीना  चाहता है ||

मिले  जो  अनछुवा  हाथों से तेरे |
तेरा  मैकश   वो मीना चाहता है ||

                                                           डा० सुरेन्द्र सैनी 












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