मुझको हाँ सुनने की आदत तुझको ना कहने की आदत |
मेरी अपनी तेरी अपनी है कहने सुनने की आदत ||
सर्दी का मौसम आते ही मुझको दुखदाई लगती है |
मुझको अनदेखा करके उनकी स्वेटर बुनने की आदत ||
झूठी झूठी क़समें खाओ या फिर धोखा देना सीखो |
सच कहना चाहो तो डालो सूली पे चढ़ने की आदत ||
जो कुछ भी करना है अपने बलबूते पर करते जाओ |
यूँ भी लोगों की होती है कामों से बचने की आदत ||
पहले गर्मी में तपने का जज़्बा तो कुछ पैदा करले |
धीरे- धीरे पड़ जाएगी शोलों में रहने की आदत ||
सब की अपनी - अपनी मर्ज़ी अपने ढंग से अपना जीना |
फिर क्यूँ है लोगों को आपस में पर्दा रखने की आदत ?
एसे बन्दे तो अक्सर ही मुश्किल में पड़ते रहते हैं |
जिनको होती है दुनिया के झंझट में पड़ने की आदत ||
अब तो बस मोबाईल पर ही सारी बातें हो जाती हैं |
अब तो सब की छूटी है चिठ्ठी - पत्री लिखने की आदत ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
सौ - सौ बार रुला कर देगें |
दुःख भी ठोक बजा कर देगें ||
जब भी कुछ पाना चाहोगे |
बिल्कुल साफ़ मना कर देगें ||
भूखे पेट दवाई खाओ |
बाकी लोग दुआ कर देगें ||
मैं ख़िदमत करता जाउगां |
जब तक आप कमा कर देगें ||
झूठी रोज़ तसल्ली देकर |
अपना फ़र्ज़ अदा कर देगें ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
यूँ बागबाँ की खैर जो पूछी कभी होती |
उजड़े शजर की डालियाँ फूलों भरी होती ||
मैं दौड़ कर तुम तक उसी पल आ गया होता |
मुझको अगर जो आपने आवाज़ दी होती ||
वो रहमतों से यूँ तुझे महरूम क्यूँ करता ?
उससे अगर नज़र- ए - इनायत मांग ली होती ||
ये आपसी शिकवे - गिले तो ख़त्म हो जाते |
इक बार हमसे रूबरू जो बात की होती ||
कुछ हम रहे बस बदगुमाँ जो खो दिया मौक़ा |
ये ज़िन्दगी वर्ना सही में ज़िन्दगी होती ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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