आख़िरी दम तक मुक़द्दर से लड़ा |
मेरा मुस्तक़बिल ही था इतना बड़ा ||
उम्र भर कुर्बानियाँ देता रहा |
हासिल - ए - मंजिल बहुत महगां पड़ा ||
धूप के दरिया में साया जो दिखा |
सोच कर पानी मैं उस जानिब बढ़ा ||
जान लेकर भी भरी नीयत नहीं |
नाम भी मेरा मिटाने पर अड़ा ||
ख़ूँ से है लबरेज़ पैमाना मगर |
ख़ाली है ज़ालिम के पापों का घड़ा ||
मेरे हाथों में थमा ख़ंजर गया |
मेरा क़ातिल है मियाँ शातिर बड़ा ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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