कहने पर आमादा है कुछ सुनने पर आमादा है |
जैसे तैसे मुझसे वो बस लड़ने पर आमादा है ||
क्या तेरा घर क्या मेरा घर इक दिन तो छीन जायेगा ?
फिर क्यूँ इस बेगाने घर में रहने पर आमादा है ||
डरता हूँ यें घर की बातें दुनिया वाले सुन लेगें |
पर छोटा बच्चा सारा सच कहने पर आमादा है ||
घर की पहली शादी के इस मस्ती वाले आलम में |
दादी क्या परदादी तक भी नचने पर आमादा है ||
मेरा क़ातिल घर के अन्दर छत से दाख़िल क्यूँ होगा ?
जब घायल दरवाज़ा ख़ुद ही खुलने पर आमादा है ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
साज़िश की गई ड्राई डे की अफ़वाहें फैलाने में |
साक़ी भी है मीना भी है सब कुछ मैख़ाने में ||
दीवाने की कैसी ज़िद है जीना है तो पीना है |
दीवाना तो दीवाना है क्या आये समझाने में ?
महगांई के मारों का ग़म मैं भी मिल कर बाँटूगा |
साक़ी बस थोड़ी ही देना तू मेरे पैमाने में ||
बेचारे रिंदों की नज़रें ठहरी हैं दरवाज़े पर |
साक़ी अटका है ट्रेफिक में वक़्त लगेगा आने में ||
अब तो कोई भिजवादे इक बोतल मेरे घर पर ही |
बूढा तन थकता है मैख़ाने तक आने जाने में ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं क्यूँ ?
बीच रस्ते खड़े हुए हैं क्यूँ ?
हमने मागां तो कुछ नहीं उनसे |
उनके तेवर चढ़े हुए हैं क्यूँ ?
खूब पढ़ -लिख गए मगर फिर भी |
ज़हन इतने सड़े हुए हैं क्यूँ ?
आप आदी हैं छोटी बातों के |
यूँ ही इतने बड़े हुए हैं क्यूँ ?
जिनको आग़ाज नया करना है |
वो ज़मीं पर पड़े हुए हैं क्यूँ ?
डा० सुरेन्द्र सैनी
जोश में आकर कभी पत्थर न यूँ फेंका करो |
ख़ुद हो शीशे से भी नाज़ुक यार कुछ सोचा करो ||
धूप में तप कर हमारा तन तो लोहा हो गया |
मोम सा है तन तुम्हारा छाँव में बैठा करो ||
मानता हूँ ज़ुल्म ढाना आपकी फ़ितरत में है |
तुम गिरेबाँ में भी अपने झांक कर देखा करो ||
चापलूसों से घिरे रहना सदा जायज़ नहीं |
साफगो लोगों से भी मिलने कभी आया करो ||
पहले छेड़ा आपने और हमने छेड़ा चिढ गए |
ये कहाँ की है शराफ़त सोच कर छेड़ा करो ?
डा० सुरेन्द्र सैनी
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